किसी की बे-रुख़ी का ग़म नहीं है कि इतना रब्त भी अब कम नहीं है न होश्यारी न ग़फ़लत और न मस्ती हमारा अब कोई आलम नहीं है रग-ए-जाँ से भी वो नज़दीक-तर हैं मगर ये फ़ासला भी कम नहीं है यहाँ क्या ज़िक्र शर्म ओ आबरू का ये दौर-ए-अज़्मत-ए-मरयम नहीं है फ़ुग़ाँ इक मश्ग़ला है आशिक़ों का ये आदत बर-बिना-ए-ग़म नहीं है फ़रिश्तों की ये शान-ए-बे-गुनाही जवाब-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम नहीं है