ग़म का जुज़दान हो गया हूँ मैं अपनी पहचान हो गया हूँ मैं ख़ुशबूएँ बस गईं हैं रग रग में जैसे गुल-दान हो गया हूँ मैं रोज़ मुझ में चिताएँ जलती हैं एक शमशान हो गया हूँ मैं कोई मुझ को समझ नहीं पाता इतना आसान हो गया हूँ मैं ठहरती ही नहीं कोई ख़्वाहिश क़स्र-ए-वीरान हो गया हूँ मैं मेरी छोटी सी इक हुकूमत है जिस का सुल्तान हो गया हूँ मैं ढो रहा हूँ मैं ख़ुद को काँधों पर एक शमशान हो गया हूँ मैं मुझ का पत्थर समझ के मत तोड़ो अब तो इंसान हो गया हूँ मैं