ग़म के सुनसान बयाबाँ से निकलता ही नहीं

ग़म के सुनसान बयाबाँ से निकलता ही नहीं
दिल मिरा दर्द के तूफ़ाँ से सँभलता ही नहीं

इश्क़ की आतिश-ए-ख़ामोश है कब से रौशन
मगर एहसास का शो'ला है कि जलता ही नहीं

हर तरफ़ धुँद है अश्कों की फ़रावानी से
दिल-ए-बेताब सराबों से बहलता ही नहीं

तल्ख़ियाँ अहल-ए-ज़माना से वो झेली हैं न पूछ
दिल मिरा फ़स्ल-ए-बहाराँ में मचलता ही नहीं

कब से हालात-ए-ज़माना हैं दिगर-गूँ लेकिन
दिल का मौसम किसी हालत में बदलता ही नहीं

क्या कहूँ दरपय-ए-आज़ार है दुनिया 'शाहीन'
आदमी क़ैद-ए-ज़माना से निकलता ही नहीं


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