ग़म से मंसूब करूँ दर्द का रिश्ता दे दूँ ज़िंदगी आ तुझे जीने का सलीक़ा दे दूँ बे-चरागी ये तिरी शाम-ए-ग़रीबाँ कब तक चल तुझे जलते मकानों का उजाला दे दूँ ज़िंदगी अब तो यही शक्ल है समझौते की दूर हट जाऊँ तिरी राह से रस्ता दे दूँ तिश्नगी तुझ को बुझाना मुझे मंज़ूर नहीं वर्ना क़तरे की है क्या बात मैं दरिया दे दूँ ली है अंगड़ाई तो फिर हाथ उठा कर रखिए ठहरिए मैं उसे लफ़्ज़ों का लबादा दे दूँ ऐ मिरे फ़न तुझे तकमील को पहुँचाना है आ तुझे ख़ून का मैं आख़िरी क़तरा दे दूँ सूरज आ जाए किसी दिन जो मेरे हाथ 'अली' घोंट दूँ रात का दम सब को उजाला दे दूँ