हिज्र में ग़म-कश कोई मुझ सा नहीं आज तक मैं ने उसे देखा नहीं कहने वाले ने तो सब कुछ कह दिया सुनने वाला एक भी समझा नहीं माह मैं किस को सुनाऊँ हाल-ए-ज़ार ख़्वाब में भी वो नज़र आया नहीं जब नज़र हो मंज़िल-ए-मक़्सूद पर रोक सकती राह की ईज़ा नहीं आरज़ू ही उस की दिल में रह गई हाथ दामन तक कभी पहूँचा नहीं बज़्म-ए-साक़ी में हुए वो सरफ़राज़ जाम जिन के हाथ में छलका नहीं वा'दा-ए-फ़र्दा की फिर तफ़्सील कर क्या कहा तू ने कोई समझा नहीं है ग़ज़ब फिर सूर ने चौंका दिया नींद भर कर मैं अभी सोया नहीं अपना सा मुँह ले के शाना रह गया पेच गेसू का कोई सुलझा नहीं कस्ब हर दम कुछ न कुछ करती है रूह जैसा कल था आज मैं वैसा नहीं जो नहीं मस्त-ए-शराब-ए-बे-ख़ुदी उस ने लुत्फ़-ए-ज़िंदगी पाया नहीं जीते जी अपने को कर देता था ख़ाक मौत से मरना कोई मरना नहीं याद ऐ 'बेताब' रखना यार को पार है बेड़ा अगर भूला नहीं