ग़म तबस्सुम में जो ढल जाता है ग़म का मफ़्हूम बदल जाता है हम ने देखा है यही हर हासिद अपनी ही आग में जल जाता है कोई मक़्सद हो रवाबित का अगर रब्त हर रुख़ से बदल जाता है और हो जाता है एहसास शदीद नग़्मा जब दर्द में ढल जाता है ज़िंदगी क्या तिरे दीवाने की दामन-ए-ग़म में भी पल जाता है अब न फ़रमाइए ताख़ीर-ए-करम देखिए वक़्त निकल जाता है उस तरक़्क़ी को सलाम ऐ 'अख़्तर' जिस में सब लुत्फ़-ए-ग़ज़ल जाता है