कमाल-ए-हुस्न का इक़रार कर जाना ही पड़ता है अदाएँ इतनी काफ़िर हों तो मर जाना ही पड़ता है कोई मंज़िल हो मजबूर-ए-सफ़र हैं हौसले वाले गुज़र मुश्किल सही लेकिन गुज़र जाना ही पड़ता है तलब में तेज़-गामी हर जगह मौज़ूँ नहीं होती जहाँ भी वक़्त ठहराते ठहर जाना ही पड़ता है कहाँ तक नाज़-बरदारी तिरी ऐ गर्दिश-ए-दौराँ चढ़े दरिया को भी इक दिन उतर जाना ही पड़ता है गुलिस्ताँ हो कि सहरा कू-ए-क़ातिल हो कि मय-ख़ाना जिधर तक़दीर ले जाए उधर जाना ही पड़ता है तिरे जलवोें की ताबानी सँभलने ही नहीं देती नज़र को होश की सूरत बिखर जाना ही पड़ता है रवाँ है कारवान-ए-ज़िंदगी लम्हों की सूरत में बिखरते टूटते शाम-ओ-सहर जाना ही पड़ता है वो जाते हैं तो साथ उन के नज़र तन्हा नहीं जाती हमें भी दूर हमराह-ए-नज़र जाना ही पड़ता है कभी हालात इस मंज़िल पे भी लाते हैं इंसाँ को कि सब कुछ जान कर सब से गुज़र जाना ही पड़ता है ज़मीन-ए-दिल की शादाबी है अमवाज-ए-हवादिस से बहार आए तो गुलशन को सँवर जाना ही पड़ता है यही तो 'शौक़'-ए-मजबूरी है अपनी बज़्म-ए-साक़ी में हज़ार इंकार करते हैं मगर जाना ही पड़ता है