गर सुब्ह-दम वो ख़ुश-गुलू ख़ुश-ख़ू निकल पड़े फूलों को छोड़ छाड़ के ख़ुशबू निकल पड़े तेरी गली हो लोग हों घुंघरू पहन के मैं एड़ी घुमा के रक़्स करूँ तू निकल पड़े उस ने किसी ग़ज़ल में सहारे की बात की चारों तरफ़ से कितने ही बाज़ू निकल पड़े हम बादा-ख़्वार अहल-ए-सुबू सुख का साँस लें वाइज़ की जेब से कहीं दारू निकल पड़े ख़्वाहिश है मैं ख़रीद लूँ 'ग़ालिब' का ख़स्ता घर और मो'जिज़ा हो सहन से उर्दू निकल पड़े उस गुल-बदन ने शाख़ को देखा जो प्यार से पत्तों पे आँखें बन गईं अबरू निकल पड़े 'दानिश' बक़ा-ए-इश्क़ का मंशूर थाम कर वारिस निकल पड़े कभी बाहू निकल पड़े