गर तिरा दर खुला नहीं होता फिर कोई आसरा नहीं होता तब भी कश्ती ख़ुदा चलाता है जब कोई नाख़ुदा नहीं होता दिल से कहता हूँ मैं मिरा हो जा पर वो कहता है जा नहीं होता कर तो लेते हैं वस्ल का वा'दा पर वो वा'दा वफ़ा नहीं होता अक़्ल ये बार बार कहती है दिल किसी का सगा नहीं होता अब कहाँ ढूँढता है ख़ुश-हाली माँ के क़दमों में क्या नहीं होता आओ उल्फ़त जहान में बाँटें नफ़रतों से भला नहीं होता नर्म लहजे में बात करने से काम दुनिया में क्या नहीं होता मर के भी मुल्क की वफ़ाओं का क़र्ज़ हम से अदा नहीं होता