गर उस की सम्त मैं अपना गुमान कर लूँगी वजूद उस का मैं फिर अपनी जान कर लूँगी कभी जो उस ने मुझे प्यार से पुकार लिया मैं उस के नाम को विर्द-ए-ज़बान कर लूँगी जो हो सके तो मुझे ले चलो उफ़ुक़ के पार मैं तेरे साथ ये ऊँची उड़ान कर लूँगी तिरे ख़याल की महफ़िल हो और चाय हो तो शेर कह के मैं दिल शादमान कर लूँगी ज़बान चुप तो है लेकिन मैं चुप रहूँगी नहीं मैं ख़ामुशी में भी सब कुछ बयान कर लूँगी उतार कर कभी धरती पे इक सितारे को ज़मीं को अपनी मैं फिर आसमान कर लूँगी