गराँ है ज़ोफ़ जब हम को हँसी में वो उड़ाते हैं तो मिस्ल-ए-गर्द उठ कर ख़ाक पर हम बैठ जाते हैं कफ़-ए-अफ़सोस का मलना है अपनी शो'बदा-बाज़ी जिगर की आग को हाथों से मल मल कर बुझाते हैं सिखाई उन को ख़ल्लाक़ी पयाम-ए-वस्ल ने मेरे नई सूरत का वो हर दम नया हीला बनाते हैं ख़ुदा की शान है रंजिश भी अपनी उन को ज़ीनत है कि जब वो देखते हैं हम को अपना मुँह बनाते हैं नहीं उठती किसी की बात ये नाज़ुक मिज़ाजी है तअ'ज्जुब है वो हर दम किस तरह फ़ित्ना उठाते हैं ग़िज़ा छुटने का मेरी जब किसी से ज़िक्र सुनते हैं तो कहते हैं कि वो धोके मिरे हाथों से खाते हैं निकाला है उन्हों ने किस मज़े का ज़िक्र ऐ 'साबिर' अदू को गालियाँ देते हैं और मुझ को सुनाते हैं