गर्दिश-ए-चश्म-ए-मस्त से दिल को लुभा गया कोई अक़्ल पे मुझ को नाज़ था वो भी मिटा गया कोई दिल को तबस्सुम-ए-नज़र अपना दिखा गया कोई दामन-ए-अक़्ल-ओ-होश में आग लगा गया कोई यास ने कर दिया था कुछ दिल के मिज़ाज को ख़ुनुक गर्मी-ए-इल्तिफ़ात से आग लगा गया कोई आलम-ए-बे-ख़ुदी में फिर सज्दों की धूम-धाम से दैर के ज़र्रे ज़र्रे को का'बा बना गया कोई 'जौहर'-ए-ग़म-नसीब को दे के पयाम-ए-इल्तिफ़ात इश्क़ के ए'तिबार को और बढ़ा गया कोई