गर्दिश-ए-ज़माना से कब नजात पाते हैं बिजलियों की ज़द पे जो आशियाँ बनाते हैं ज़ाहिरी नवाज़िश को दोस्ती नहीं कहते दिल अगर नहीं मिलता हाथ क्यों मिलाते हैं देखना है तुम कब तक हम से बैर रक्खोगे हर क़दम पे चाहत के हम दिए जलाते हैं हम ने जो ज़माने का कल सबक़ पढ़ाया था वो उसूल अब हम को आइना दिखाते हैं ज़िंदगी हक़ीक़त में जो समझ के जीते हैं वो ख़ुशी में रोते हैं ग़म में मुस्कुराते हैं हम से ख़ुश नहीं होंगे मस्लहत के सौदागर उन के ऐब हम अक्सर रौशनी में लाते हैं रात के अंधेरे में डूब जाते हैं लेकिन सुब्ह होते ही 'साबिर' साए सर उठाते हैं