गर्दिश-ए-दौराँ से इक लम्हा चुराने लिए सोचना पड़ता है कितना मुस्कुराने के लिए कितनी ज़हमत झेलता है एक मुफ़्लिस मेज़बान घर की बद-हाली को मेहमाँ से छुपाने के लिए भूक उन को ले गई है कार-ख़ानों की तरफ़ घर से बच्चे निकले थे स्कूल जाने के लिए ख़ून अपना बेच कर आया है इक मजबूर बाप बेटियों के हाथ पर मेहंदी लगाने के लिए ज़िंदगी जलती है कितनी दोज़ख़ों की आग में चार-दीवारों की इक जन्नत बनाने के लिए हाए त्यौहारों ने लोगों को भिकारी कर दिया क़र्ज़ लेना पड़ता है ख़ुशियाँ मनाने के लिए हो रहे हैं आज दाना आँधियों में मशवरे सिर्फ़ मेरे घर का इक दीपक बुझाने के लिए