गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होने तक चैन से बैठें वो आहों में असर होने तक ज़ब्त करती थी मिरी बे-ख़ुदी-ए-शौक़ कहीं पहुँचा मंज़िल पे मैं सामान-ए-सफ़र होने तक वजह-ए-तस्कीं है ये मुझ को शब-ए-तन्हाई में बातें करता हूँ तिरे ग़म से सहर होने तक कितना बर्बाद करे देखिए ये शौक़-ए-फ़रोग़ ख़ाक के ज़र्रों को हम-रंग-ए-शरर होने तक अब तो आता है मुझे अपनी हँसी पर रोना आरज़ू हँसने की थी चश्म के तर होने तक किसी पहलू नहीं मिलता शब-ए-ग़म दिल को सुकूँ एक हालत से तड़पता हूँ सहर होने तक बस-कि है जल्वा-ए-दुनिया सबब-ए-मर्ग-ए-निगाह चाहिए क़त-ए-नज़र ज़ौक़-ए-नज़र होने तक काश बन जाएँ ये नुक़्ते वरक़-ए-हस्ती के अश्क-ए-ग़म दामन-ए-रंगीं पे गुहर होने तक अब तो हर ज़र्रा इक आईना-ए-इरफ़ाँ है मुझे थी ये सब बे-ख़बरी अपनी ख़बर होने तक वो जफ़ा-दोस्त हूँ मिलती नहीं राहत मुझ को वक़्फ़-ए-तेग़-ए-निगह-ओ-तीर-ए-नज़र होने तक कितना पुर-कैफ़ है जज़्बात में डूबा होना क्यों फ़रिश्ता बनूँ दुनिया में बशर होने तक तिरा दिल भी है अजब फ़िक्र-फ़रामोश 'जुनूँ' मिट गए रात के सब रंज सहर होने तक