ग़ुंचे से मुस्कुरा के उसे ज़ार कर चले नर्गिस को आँख मार के बीमार कर चले फिरते हो बाग़ से तो पुकारे है अंदलीब सुब्ह-ए-बहार-ए-गुल पे शब-ए-तार कर चले उठते हुए जो दैर से ली मदरसे की राह तस्बीह शैख़-ए-शहर की ज़ुन्नार कर चले आए जो बज़्म में तो उठा चेहरे से नक़ाब परवाने ही को शम्अ से बेज़ार कर चले आज़ाद करते तुम हमें क़ैद-ए-हयात से इस के एवज़ जो दिल को गिरफ़्तार कर चले उठ कर हमारे पास से घर तक रक़ीब के पहुँचेगा वो कोई जो हमें मार कर चले लो ख़ुश रहो घर अपने में जिस शक्ल से हो तुम दो चार नाले हम पस-ए-दीवार कर चले अन्दोह-ओ-दर्द-ओ-ग़म ने किया अज़्म जब इधर हम को अदम से क़ाफ़िला-सालार कर चले 'सौदा' ने अपने ख़ूँ की दियत तुम से यक-निगाह चाही तो इतनी बात से इंकार कर चले प्यारे ख़ुदा के वास्ते टुक अपने दिल के बीच इंसाफ़ तो करो ये किसे मार कर चले