गीत बनते हुए हर साज़ से डर लगता है ख़ामुशी अब तिरी आवाज़ से डर लगता है पहले आग़ाज़ था अंजाम से ख़ाइफ़ लेकिन आज अंजाम को आग़ाज़ से डर लगता है तू ने हर दौर में की हम पे इनायत लेकिन ज़िंदगी अब तिरे ए'जाज़ से डर लगता है फिर किसी ताज की ज़िद तूल पकड़ ले न कहीं घर के हर शाह को मुम्ताज़ से डर लगता है ख़ौफ़ आता है तबीअ'त के खुले रहने से बे-ख़तर सोच की परवाज़ से डर लगता है तेरी हर बात के अंदाज़ निराले हैं 'रफ़ी' तुझ से वाबस्ता हर इक राज़ से डर लगता है