ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-दौराँ में निहाँ है कि नहीं मेरा अफ़्साना हदीस-ए-दिगराँ है कि नहीं एक मुद्दत से नहीं कुछ ख़बर-ए-आवारा देखो दीवाना सर-ए-कू-ए-बुताँ है कि नहीं यारो इंसाफ़ करो कुछ तो ख़ुदा लगती कहो बोलो वो शोख़ मिरा जान-ए-जहाँ है कि नहीं कल की है बात कि साए की तरह साथ थे जो आज साया भी मिरा उन को गिराँ है कि नहीं मेरे मरने पे वो तड़पे तो तअ'ज्जुब क्यों है शो'ला-ए-शम्अ' सर-ए-बज़्म तपाँ है कि नहीं दिल-ए-बे-ख़ुद तिरी बातों पे हँसी आती है तेरा अफ़्साना फ़क़त वहम-ओ-गुमाँ है कि नहीं ग़म-ए-जानाँ का मुदावा तो मयस्सर न हुआ कुछ इलाज-ए-ग़म-ए-दौराँ भी यहाँ है कि नहीं आप ही आप ये दिल चूर हुआ जाता है कुछ इलाज इस का भी ऐ शीशा-गराँ है कि नहीं आँख मिलते ही शगुफ़्ता हुआ रू-ए-ज़ेबा कहिए ये मो'जिज़ा-ए-ख़ुश-नज़राँ है कि नहीं हम न कहते थे कि अब बिन्त-ए-इनब कि छोड़ो एक हंगामा सर-ए-रित्ल-ए-गिराँ है कि नहीं हम हथेली पे लिए सर को यहाँ आए हैं ताक में उस की कोई दुश्मन-ए-जाँ है कि नहीं क्यों हुआ जाता है पर्दे से तू बाहर 'नक़वी' सोच तो ख़ल्वती-ए-राज़-ए-निहाँ है कि नहीं