ग़म-ए-ज़िंदगी तिरे रोज़-ओ-शब से है सिलसिला नई धूप का तुझे हो ख़बर मिरे दर्द से भी है राब्ता नई धूप का मिरी मंज़िलों को ख़बर करो उन्हें रौशनी की नवेद हो मिरे दर पे आ के बना गया कोई रास्ता नई धूप का शब-ए-इंतिज़ार अजीब थी मिरी रात आँखों में कट गई सर-ए-शाम कौन ये दे गया मुझे इंदिया नई धूप का ये जो हुस्न-ओ-इश्क़ का राज़ है ये निगाह-ए-रब का मजाज़ है कोई मुंतज़िर घनी छाँव का कोई मुब्तला नई धूप का कोई चाप उठी ना कोई सदा कोई ख़ामुशी से पलट गया मिरे घर के आगे रुका तो था कोई क़ाफ़िला नई धूप का मेरे सहन में जो दरख़्त है उसे ताएरों से भी रब्त है वहीं सुरमई से परों के बीच वो तहलका नई धूप का ये जो डाली डाली सँवर गई कोई बदली खुल के बरस गई है तभी से देखो अजीब सा नया तनतना नई धूप का चलो ग़ाज़ा वक़्त का चल गया कोई शाम चेहरे पे मल गया मिरी एलबमों में कहीं कहीं कोई ज़िक्र था नई धूप का मुझे पिछली शब की ख़ुनुक रवी ने ही सुब्ह-दम ये शुनीद दी मैं धनक की ओढ़ के ओढ़नी करूँ नाश्ता नई धूप का मिरे बाम-ओ-दिल को सजाएगी कि ये कोरे ख़्वाब जलाएगी चलो आज 'सीमा' इसी पे हम करें तसफ़िया नई धूप का