ग़म में ढलती जाती है आज हर ख़ुशी अपनी ज़िंदगी पे रोती है आह ज़िंदगी अपनी जिस ने कर दिया रुस्वा जिस ने कर दिया बर्बाद उस से क्या निभे ऐ दिल रस्म-ए-दोस्ती अपनी जब क़दम उठाते हैं दूर होती है मंज़िल ले के फिर कहाँ जाए हम को बे-ख़ुदी अपनी आतिश-ए-ग़म-ए-दौराँ शो'ला-ए-ग़म-ए-जानाँ मेरे दिल से लेते हैं ताब-ए-ज़िंदगी अपनी लो ख़िज़ाँ के पंजे में जाते जाते हर ग़ुंचा आह सुर्ख़ होंटों की दे गया हँसी अपनी कोई दर्द-ए-दिल मेरा आज तक नहीं समझा ऐ 'ज़मीर' काम आती काश शायरी अपनी