ग़मों में भी मसर्रत की फ़रावानी नहीं जाती

ग़मों में भी मसर्रत की फ़रावानी नहीं जाती
हमारे ज़ख़्म-ए-दिल की ख़ंदा-सामानी नहीं जाती

न जाने कौन से आलम में ले आया जुनूँ मुझ को
कि मंज़िल सामने है और पहचानी नहीं जाती

ब-ज़ाहिर तो चमन में हर तरफ़ जश्न-ए-बहाराँ है
न जाने क्यों गुलों की चाक-दामानी नहीं जाती

हमारी ख़ैरियत वो पूछते रहते हैं ग़ैरों से
ख़लिश दर्द-ए-मोहब्बत की ब-आसानी नहीं जाती

मह-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-अंजुम पर कमंदें डालने वालो
सबब क्या है कि ज़ेहनों की परेशानी नहीं जाती

अभी तक ख़ुद-ग़रज़ हाथों में है नज़्म-ए-चमन शायद
बहार आई मगर गुलशन की वीरानी नहीं जाती

हमारी कश्ती-ए-उम्मीद के वो नाख़ुदा ठहरे
अभी तक नब्ज़-ए-तूफ़ाँ जिन से पहचानी नहीं जाती

गुज़र जाता है इक साया सा दिल की रह-गुज़ारों से
ग़म-ए-माज़ी की अब तक फ़ित्ना-सामानी नहीं जाती

'तरब' शायद वही मंज़िल है सरहद हुस्न-ए-जानाँ की
जहाँ से और आगे अक़्ल-ए-इंसानी नहीं जाती


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