घनघोर घटा के आँचल को जब काली रात निचोड़ गई इक तन्हाई को चैन मिला इक तन्हाई दम तोड़ गई ऐ वक़्त के अंधे रखवालो ये राज़ तो हम भी जानते हैं बे-वज्ह तुम्हारी आँखों से क्यूँ बीनाई मुँह मोड़ गई इक वो भी सफ़ीना था अपना जो साहिल साहिल घूम गया इक ये भी हमारी कश्ती है जो लहरों में सर फोड़ गई हर चंद नज़र ने तारों पर शब-ख़ून तो मारा है लेकिन ये रात सहर के दामन पर कुछ दाग़ लहू के छोड़ गई इंसान का रौशन मुस्तक़बिल जिस वक़्त चराग़-ए-राह बना हर मंज़िल अपने क़दमों से तारीख़ का नाता जोड़ गई