घर जला लेता है ख़ुद अपने ही अनवार से तू काट देता है ज़मीं साया-ए-दीवार से तू इस क़दर तेज़ न चल साँस उखड़ जाएगा तय न कर राह-ए-तलब एक ही रफ़्तार से तू गोशा-ए-दिल की ख़मोशी का तमन्नाई मैं और हंगामे उठा लाया है बाज़ार से तू तो ज़रा सा भी अगर फ़ित्ना है बरपा हो जा अपनी क़ामत न बढ़ा तुर्रा-ए-दस्तार से तू आँधियाँ उट्ठी हैं वो देख फ़लक सुर्ख़ हुआ तोदा-ए-रेग पे बैठा है बड़े प्यार से तू शब की तारीकी में मैं ने तुझे पहचान लिया जब हुवैदा न हुआ सुब्ह के आसार से तू मुद्दतों से तिरी आँखों के सदफ़ ख़ाली हैं इस क़दर ख़ौफ़ न खा अब्र-ए-गुहर-बार से तू तज़्किरे करता है जलते हुए सहराओं के दश्त को देखता है शहर की दीवार से तू मुंतज़िर है तिरा इक उम्र से जंगल 'शहज़ाद' इस क़दर दूर न रह अपने तलबगार से तू