घर की खिड़की में सर-ए-शाम दिया रखता है किस के आने की वो उम्मीद लगा रखता है उस से टकरा के बलाएँ भी पलट जाती हैं साथ अपने जो बुज़ुर्गों की दुआ रखता है एक मुद्दत से मुसलसल है तलाश-ए-रिश्ता वक़्त कब देखिए हाथों पे हिना रखता है उस की रहमत से न मायूस कभी तुम होना प्यार बंदों से वो माओं से सिवा रखता है क्यों नहीं सीखता इंसान क़नाअत का सबक़ इक परिंदा तो बताओ जो बचा रखता है रख नहीं सकता कभी रेहन ग़रीबी अपनी अपने अंदर जो ज़रा सी भी आना रखता है देख 'साहिल' वही पाएगा यक़ीनन मंज़िल हो के नाकाम भी जो अज़्म नया रखता है