घर को अब दश्त-ए-कर्बला लिक्खूँ आज ख़ुद अपना मर्सिया लिक्खूँ सादा काग़ज़ पे ख़ून के आँसू अब उसे ख़त में और क्या लिक्खूँ बर्ग-ए-गुल पर सबा के दामन पर नाम तेरा ही जा-ब-जा लिक्खूँ ज़िक्र आए जो तेरी मंज़िल का चाँद-सूरज को नक़्श-ए-पा लिक्खूँ हो तिरा ही जमाल पेश-ए-नज़र जब क़लम से ख़ुदा ख़ुदा लिक्खूँ मैं तो ज़िंदा हूँ मर चुका है वो अपने क़ातिल का मर्सिया लिखूँ ऐ 'सरोश' अपनी ज़िंदगी को मैं कौन से जुर्म की सज़ा लिक्खूँ