जो सुन कर लगी ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने ये क्या कह दिया था कली से सबा ने मिरे शेर अनमोल लाल-ओ-गुहर हैं लुटाए तिरे ग़म ने क्या क्या ख़ज़ाने शफ़क़ खिल उठी चम्पई आरिज़ों पर निखारा तिरे रंग-ए-रुख़ को हया ने रहा है वही दिल का एहसास-ए-उल्फ़त बदलते रहे लाख करवट ज़माने मोहब्बत का उन को यक़ीं आ चला है हक़ीक़त बने जा रहे हैं फ़साने झिझक कर किसी ने चुराईं जो नज़रें चराग़-ए-तमन्ना लगा झिलमिलाने कभी ये भी सोचा है ऐ हँसने वालो अगर पड़ गए तुम को आँसू बहाने वो तूफ़ान बाद-ए-मुख़ालिफ़ कहाँ है जो उट्ठा था ऐ 'नक़्श' मुझ को मिटाने