घर में रहता हूँ तो पाँव में सफ़र जागता है जैसे आग़ोश में दरिया के भँवर जागता है जब किसी ऊँची हवेली पे ठहरती है निगाह क्यों उसी वक़्त मिरे दिल में खंडर जागता है बैठ जाते हैं घनी छाँव में हम भी जिस दम वादी-ए-रूह में यादों का शजर जागता है इज्ज़ आँखों से टपकता है जब आँसू बन कर तब कहीं जा के दुआओं में असर जागता है बात क्या है कि हमें आती नहीं गहरी नींद बंद होती हैं अगर पलकें तो सर जागता है कुछ अजब होता है वो लम्हा-ए-तख़्लीक़ 'ज़फ़र' दस्त-ए-फ़न-कार में जब वक़्त-ए-हुनर जागता हे