शोहरतों की हमें ललक है बहुत ख़ुद-नुमाई में क्या चमक है बहुत बुझ रहे हैं चराग़ आँखों के इक धुँदलका सा दूर तक है बहुत लम्हा भर का फ़क़त धमाका है बिजलियों में कहाँ चमक है बहुत ज़ख़्म तो भर चुके सभी लेकिन अब भी एहसास की कसक है बहुत पेड़ बूढ़ा सही मगर फिर भी टहनियों में अभी लचक है बहुत निकहत-ए-गुल से हम को क्या लेना ज़ख़्म खुल जाएँ तो महक है बहुत चीख़ उट्ठीं ख़मोशियाँ भी 'ज़फ़र' इस बयाबाँ में क्यों धमक है बहुत