घर में बाशिंदे तो इक नाज़ में मर जाते हैं और जो हम-साए हैं आवाज़ में मर जाते हैं कब्क ओ ताऊस को चलता है तू ठहरा के तो हम तेरी रफ़्तार के अंदाज़ में मर जाते हैं मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी यक-ब-यक मौसम-ए-परवाज़ में मर जाते हैं हैं तिरे रम्ज़-ए-तबस्सुम के अदा-फ़हम जो शख़्स जुम्बिश-ए-लाल-ए-फ़ुसूँ-साज़ में मर जाते हैं लब हिलाने नहीं पाता वो कि हम नादीदा बस वहीं बात के आग़ाज़ में मर जाते हैं तौसन-ए-नाज़ को फेंके है वो जिस दम सरपट लोग क्या क्या न तग-ओ-ताज़ में मर जाते हैं 'मुसहफ़ी' दश्त-ए-बला का सफ़र आसान है क्या सैकड़ों बसरा ओ शीराज़ में मर जाते हैं