घर से निकले हैं किसी ज़ालिम के ख़्वाहाँ हो के हम फिर रहे हैं आप अपने दुश्मन-ए-जाँ हो के हम देख कर सुम्बुल को याद आई जो ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं मिस्ल-ए-बू गुलशन से निकले हैं परेशाँ हो के हम चश्म-ए-तर ने दामन-ए-सहरा में मोती भर दिए जोश-ए-वहशत में उठे थे अब्र-ए-नैसाँ हो के हम चौंक पड़ते हैं वो रूया में भी हम को देख कर शायद आते हैं नज़र ख़्वाब-ए-परेशाँ हो के हम हौसले परवाज़ के निकले हैं मर-मिटने के बाद उड़ते फिरते हैं ग़ुबार-ए-कू-ए-जानाँ हो के हम इंतिहा-ए-लाग़री ने कर दिया क़िस्सा दराज़ जी रहे हैं मौत की नज़रों से पिन्हाँ हो के हम देख कर दिल टूटता है 'शाएक' अंजाम-ए-हबाब क्या करेंगे बहर-ए-आलम में नुमायाँ हो के हम