ग़ज़ल ग़ज़ल वही चेहरा दिखाई देता है सुख़न सुख़न वही गोया दिखाई देता है क़बा-ए-सुर्ख़ में क्या है कि देखते रहिए वो हर लिबास में अच्छा दिखाई देता है बहुत क़रीब न आओ मैं आइना ही सही बहुत क़रीब से धुँदला दिखाई देता है ये क्या सितम है कि बस्ती के एक ही घर में कई घरों का उजाला दिखाई देता है कोई ख़याल न सूरत न ज़ाइक़ा न पुकार बस एक वहम गुज़रता दिखाई देता है ख़िज़ाँ की धूप में मैं ने कहा न था कि मुझे हरा-भरा कोई साया दिखाई देता है किसी के हाथ में कासा नहीं मगर 'आसिम' हर एक हाथ में कासा दिखाई देता है