मसाफ़त की गराँ हर एक साअ'त टूट जाती है तिरी चश्म-ए-इनायत से अज़िय्यत टूट जाती है तिरी यादों की सूरत से निकलती है अजब सूरत उजाले यूँ बरसते हैं कि ज़ुल्मत टूट जाती है सदा-ए-हक़-शनासी गश्त करती रहती है लेकिन ज़माना ये समझता है सदाक़त टूट जाती है बरा-ए-जज़्बा-साज़ी कुछ दिखावा हो मगर यारो रिया-कारी बरतने से इबादत टूट जाती है ग़ज़ल में जिद्दत-ओ-नुदरत ज़रूरी है बहुत 'अमजद' मगर फ़न्नी बुख़ालत से सलासत टूट जाती है