ग़ुंचों ने दहन खोले कलियों ने ली अंगड़ाई यूँ सह्न-ए-गुलिस्ताँ में चुपके से बहार आई दुनिया उसे कहती है फिर किस लिए सौदाई जो ख़ुद ही हो दीवाना और ख़ुद ही तमाशाई क्यूँकर न करूँ ऐ दिल उस ग़म की पज़ीराई ग़ुर्बत में यही तो है इक मोनिस-ए-तन्हाई कहते न थे इक दिन वो माइल-ब-करम होंगे ये ज़ब्त की आदत ही आख़िर मिरे काम आई हर गाम रुकावट है हाइल रह-ए-मंज़िल में होती है मुसाफ़िर की यूँ हौसला-अफ़ज़ाई क्यूँ-कर न ज़माने की आँखों से छपाऊँ मैं हर चीज़ से प्यारी है मुझ को मिरी तन्हाई 'हसरत' रह-ए-उल्फ़त में आख़िर वो मक़ाम आया लेने के लिए मुझ को मंज़िल मिरे पास आई