घुप अंधेरा था जा-ब-जा मुझ में रात रहती थी बा-ख़ुदा मुझ में मैं तो सर को झुकाए बैठा था इश्क़ ने सर उठा लिया मुझ में ग़म यहाँ से निकल नहीं पाया चार जानिब था हाशिया मुझ में मेरा ही रूप धार कर कोई देर तक चीख़ता रहा मुझ में जाने किस किस ने रात काटी यहाँ जाने किस किस को तू मिला मुझ में छत गिराई तो रास्ता निकला फिर तमाशा सा लग गया मुझ में मेरी तह तक पहुँच नहीं पाया एक पत्थर जो गिर पड़ा मुझ में तेरी आवाज़ गूँजती थी कभी अब तो रहता है बस ख़ला मुझ में सारे मंज़र छुपा दिए उस ने वो जो तेरा ग़ुबार था मुझ में फल ही फल थे यहाँ वहाँ 'मोहसिन' इक शजर था झुका हुआ मुझ में