हैरतें ख़त्म हुईं सेहर-ए-तमाशा टूटा आओ अब लौट चलें क़ुफ़्ल नज़र का टूटा जागते जागते कुछ वक़्त लगा है हम को टूटते टूटते इक उम्र का नश्शा टूटा अब तो इतना भी नहीं कोई बताने वाला कब ये दीवार गिरी कब ये दरीचा टूटा कोई चीख़ा था मिरे जिस्म के अंदर इक बार फिर न पत्थर कोई आया न ही शीशा टूटा मैं न कहता था तिरा मेरा है रिश्ता नाज़ुक आँख के एक इशारे ही से देखा टूटा नोच कर फेंक दें ये ख़्वाब यही बेहतर है वर्ना किस किस को बताएँगे कि क्या क्या टूटा वो जो बच्चा है लड़कपन से मिरे साथ 'ज़िया' उस के हाथों मिरा हर इक खिलौना टूटा