हवा की ज़द पे दिए को सँभाल रक्खा है फ़सील-ए-शब पे उजाला बहाल रक्खा है अज़ल से हैं ख़त-ए-महवर पे ये ज़मान-ओ-मकाँ ज़मीं पे सिलसिला-ए-माह-ओ-साल रक्खा है सिफ़ात-ओ-ज़ात को अज़दाद पर किया तक़्सीम ख़ुशी के साथ ग़म-ए-ला-ज़वाल रक्खा है ख़ुशी अता की दिलों को ब-क़द्र-ए-पैमाना फ़रोग़-ए-ग़म में भी इक ए'तिदाल रक्खा है रुमूज़ खोल दिए मुझ पे आसमानों के मगर शुऊ'र में दाम-ए-ख़याल रक्खा है उसी ने ख़ाक से पैदा किया है इंसाँ को मगर हर इक का जुदा ख़द्द-ओ-ख़ाल रक्खा है हर एक नक़्श को उस ने बड़ी महारत से बहुत अज़ीम मगर बे-मिसाल रक्खा है कमाल ये है कि तख़लीक़-ए-काएनात हुई मगर कमाल में पिन्हाँ सवाल रक्खा है यही है शान-ए-करीमी यही है हुस्न-ए-कमाल हर एक शय का उरूज-ओ-ज़वाल रक्खा है 'सबा' हज़ार अता की हैं ने'मतें उस ने मगर जहाँ में असीर-ए-मलाल रक्खा है