गिला नहीं कि मुख़ालिफ़ मिरा ज़माना हुआ मैं ख़ुद ही छोड़ के कार-ए-जहाँ रवाना हुआ मैं अब चला कि मिरा क़ाफ़िला रवाना हुआ कभी फिर आऊँगा वापस जो आब-ओ-दाना हुआ मैं बिल-मुशाफ़ा नहीं जानता किसी को यहाँ कि मुझ से मेरा तआ'रुफ़ भी ग़ाएबाना हुआ हवा-ए-गुल भी न पैरों की बन सकी ज़ंजीर बहार में भी न अब के कोई दिवाना हुआ जो रेग ज़ेर-ए-क़दम आई बन गई सब्ज़ा ग़ुबार सर पे जो आया तो शामियाना हुआ किसी को नोक-ए-सिनाँ भी ज़मीर की न चुभी किसी को एक इशारा ही ताज़ियाना हुआ ज़माना खिंच के न क्यूँ उस के पास जाएगा वो आली-जाह हुआ साहिब-ए-ख़ज़ाना हुआ बरस रही है मिरी चश्म-ए-नम तो बरसों से तही न अब्र-ए-गुहर-बार का ख़ज़ाना हुआ नज़र में सब का ये मंज़र समेट लो 'मोहसिन' सहर क़रीब है अब ख़त्म ये फ़साना हुआ