गिरह जो पड़ गई रंजिश में वो मुश्किल से निकलेगी न उन के दिल से निकलेगी न मेरे दिल से निकलेगी नहीं दुश्वार कुछ अपने मकाँ से ला-मकाँ जाना वहीं पहुँचाएगी जो राह जिस मंज़िल से निकलेगी मिरी कश्ती अगर छूटेगी दरिया-ए-मोहब्बत में तो सबसे पहले बिस्मिल्लह लब-ए-साहिल से निकलेगी बड़ी सख़्ती से मेरी जान निकली है कई दिन में यकायक लाश क्यूँकर कूचा-ए-क़ातिल से निकलेगी तरशते हैं क़यामत के ग़ज़ब के रात दिन फ़िक़रे नई जब बात निकलेगी तिरी महफ़िल से निकलेगी रुमूज़-ए-आशिक़ी को आशिक़ो तुम 'दाग़' से पूछो कि बारीकी में बारीकी उसी कामिल से निकलेगी