किस क़दर बे-रुख़ी से मिलते हैं ख़्वाब जब ज़िंदगी से मिलते हैं याद आते हैं दिल-रुबा मंज़र होंट जब बाँसुरी से मिलते हैं डसते रहते हैं महफ़िलों के बदन ज़ख़्म जो ख़ामुशी से मिलते हैं दिन की दहलीज़ पर खड़े हो कर रात भर हम किसी से मिलते हैं ज़ीस्त के ख़ुशनुमा सवेरे भी वक़्त की तीरगी से मिलते हैं तेरी ग़ज़लों के सब नुक़ूश 'रफ़ी' हू-बहू इस सदी से मिलते हैं