गो चाहता था बहुत पर ये मुझ से हो न सका मैं अर्ज़-ए-दिल में मोहब्बत का बीज बो न सका भँवर में यूँ तो मिरी नाव बारहा आई मगर हवस का समुंदर मुझे डुबो न सका सदा-ए-गुम्बद-बे-दर हूँ क़ैद हूँ कब से मैं अपने आप में कोई सदा समो न सका मैं माह-ओ-साल के रेशम से नर्म धागे में तुम्हारी याद के मोती कभी पिरो न सका बिछड़ते वक़्त वो रोया लिपट के मुझ से बहुत अजब सितम है कि मैं फिर भी खुल के रो न सका अजीब शोर उठा था हवस के दरिया में मगर मैं शोर में आवाज़ अपनी खो न सका बहुत से यूँ तो मुझे हम-सफ़र मिले 'अख़्तर' मगर कोई भी मिरे ग़म का बोझ ढो न सका