गोद में पंछी तो शाख़ों पे समर रखते हैं ये शजर माँ की तरह दस्त-ए-हुनर रखते हैं चोंच-भर दाने लिए जाते हैं बच्चों के लिए ये परिंदे भी कहाँ ज़ाद-ए-सफ़र रखते हैं धूप चलती नहीं साया है कि रुकता ही नहीं हम ज़मीं वाले अजब शाम-ओ-सहर रखते हैं सूख जाते हैं पड़े रहते हैं तालाबों में ये कँवल अपना अलग तर्ज़-ए-बसर रखते हैं मेरी बस्ती में बड़ी ज़ात के रहते हैं लोग फ़िक्र-ए-दस्तार नहीं काँधों पे सर रखते हैं दोस्तो ,तीरों की आँखें तो नहीं होतीं मगर फिर भी दुश्मन के ठिकानों की ख़बर रखते हैं ऊँची परवाज़ हो तो जिस्म का झड़ना कैसा हम परिंदों की तरह बाल-ए-हुनर रखते हैं आज भी पहले सा बचपन है हमारा 'एहसान' हम किताबों में अभी मोर के पर रखते हैं