जब पर-ए-पर्वाज़ मेरा आसमाँ में आ गया इक परिंदा भी सफ़-ए-सय्यारगाँ में आ गया मैं पस-ए-पर्दा कोई गुमनाम सा किरदार था ज़िक्र मेरा कैसे तेरी दास्ताँ में आ गया ये ज़रूरी तो नहीं हिजरत परिंदे ही करें धूप जिस को भी लगी वो साएबाँ में आ गया आसमाँ पर इक दिए की लौ उछाली थी फ़क़त लौट कर सारा उजाला ख़ाक-दाँ में आ गया जब मिरी उम्र-ए-रवाँ उँगली पकड़ कर चल पड़ी देख मैं फिर से तिरे वहम-ओ-गुमाँ में आ गया मैं ने चक्खी थी किसी के नर्म लहजे की मिठास क्या बताऊँ ज़ाइक़ा कैसा ज़बाँ में आ गया एक सहरा चल पड़ा 'एहसान' मेरे साथ क्या वो भी मेरे हल्क़ा-ए-आवारगाँ में आ गया