गुफ़्तुगू एक पल रुकी भी नहीं बात करनी थी जो हुई भी नहीं ऐसे देखो तो सब अधूरा है वैसे देखो तो कुछ कमी भी नहीं हम बुझाएँगे हम बुझाएँगे आग जो ठीक से लगी भी नहीं मुझ से इक शिकवा है ज़माने को चाल पूछी भी और चली भी नहीं रब्त टूटा तो टूट जाने दिया जिस्म के साथ रूह थी भी नहीं हम और आप इक ग़ज़ल का चर्बा हैं वो ग़ज़ल जो अभी हुई भी नहीं