गुफ़्तुगू तर्क-ए-ख़ामुशी है फ़क़त हम-सफ़र एक अजनबी है फ़क़त अहद-ए-रफ़्ता के वलवलों का निशाँ इक मुसलसल सी बेकली है फ़क़त देखना-भालना गया तिरे साथ आँख मुद्दत से सोचती है फ़क़त हर तरफ़ इक अथाह सन्नाटा चाप अपनी ही गूँजती है फ़क़त हर तरफ़ बे-पनाह तारीकी अपनी आँखों की रौशनी है फ़क़त अज्नबिय्यत के यख़-कदों में दोस्त ख़ुद कलामी पे ज़िंदगी है फ़क़त हम कहाँ और जवाज़-ए-शिकवा कहाँ नाला इज़हार-ए-बे-कसी है फ़क़त कर हिफ़ाज़त मता-ए-हैरत की हासिल-ए-ज़िंदगी यही है फ़क़त अब दिमाग़-ए-सुख़न भी है किस को उमर मुद्दत से कट रही है फ़क़त