गुज़र इस हुज्रा-ए-गर्दूं से हो कीधर अपना क़ैद-ख़ाना है अजब गुम्बद-ए-बे-दर अपना शक्ल रहने की है बस्ती में ये उस बिन अपनी जैसे जंगल में बनाता है कोई घर अपना शब की बे-ताबियाँ क्या कहिए कि देखा जो सहर टुकड़े टुकड़े नज़र आया हमें बिस्तर अपना हम-नशीं उस को जो लाना है तो ला जल्द कि हम थामे बैठे रहें कब तक दिल-ए-मुज़्तर अपना वो गए दिन कि सदा मय-कदा-ए-हस्ती में बादा-ए-ऐश से लबरेज़ था साग़र अपना ताब-ए-नज़्ज़ारा तिरी लाए न ख़ुर्शीद ज़रा हाथ जब तक कि न रख ले वो जबीं पर अपना देंगे सर इश्क़ के सौदे में अगरचे हम को इस में नुक़साँ नज़र आता है सरासर अपना है ज़मीं ख़ूब ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल इस को कहिए बस कि मामूल है 'जुरअत' यही अक्सर अपना