गुज़रे दिनों का ज़िक्र हुआ और वीरानी की बात चली इक मुद्दत से ख़ुश्क थीं आँखें फिर पानी की बात चली उस की गली से शो'ला उट्ठा मेरे घर में आग लगी जलने का तो ज़िक्र नहीं था ताबानी की बात चली मुश्किल मंज़र देखते रहना उस की पुरानी आदत थी मुश्किल से इस चश्म के आगे आसानी की बात चली बादल आए हवा चली और बाहर मौसम बदल गया दिल के बहते दरिया में भी तुग़्यानी की बात चली मायूसी के पत्थर से इक आस का चश्मा फूट बहा आस के बहते पानी में फिर हैरानी की बात चली रौशन हो गईं सारी गलियाँ सब दरवाज़े चमक उठे जब से 'आमिर' शहर में उस की मेहमानी की बात चली