गुज़रे वक़्त की शायद तुझे ख़बर कम है मिरे सफ़र में कोई तुझ सा हम-सफ़र कम है गिला मुआ'फ़ मगर मैं जहाँ पड़ा हुआ हूँ मिरे चराग़ तिरी रौशनी उधर कम है शरीक-ए-हाल हुई थी जहाँ कहीं दुनिया फ़क़त वहीं से तिरा हिज्र-ए-मो'तबर कम है गई रुतों में बहुत गुफ़्तुगू रही जिस से भरे चमन में वो बस एक ही शजर कम है तिरी नज़र में न होंगी वो मुंतज़िर शमएँ कि दिल-गली से तो यूँ भी तिरा गुज़र कम है बदन से आगे जो बढ़ता नहीं तबीब मिरे सो दिल के ज़ख़्म की जानिब तिरी नज़र कम है