गुलों के शो’ला-सिफ़त मंज़रों में छुप सा गया वो दुबला-पतला बदन ख़ुशबुओं में छुप सा गया सुहाने ख़्वाबों का इक शहर शाम होते ही जले चराग़ तो परछाइयों में छुप सा गया गले लगा रहा ज़ुल्मत के रात-भर कोई सहर हुई तो खुले बाज़ुओं में छुप सा गया न जाने कौन से दरिया से जा मिलीं लहरें लहू का शोर फड़कती रगों में छुप सा गया किसी के नक़्श-ए-कफ़-ए-पा दिखाई क्या देते वो संग-ए-मील ही जब रास्तों में छुप सा गया गली में रेत के आँगन का कुछ पता न चला बगूला उड़ते हुए काग़ज़ों में छुप सा गया कराहते हुए लम्हों को छोड़ कर ऐ 'शाद' किसी की चाह का दिन पर्बतों में छुप सा गया