गुलों में रंग नहीं मौसम-ए-बहार नहीं मिरी हयात मगर फिर भी सोगवार नहीं है दौर-ए-इश्क़ यहाँ जब्र-ओ-इख़्तियार नहीं सुकून-ए-दिल के लिए कोई बे-क़रार नहीं यही उ'रूज-ए-मोहब्बत यही उसूल-ए-वफ़ा किसी सहर के लिए शाम-ए-इंतिज़ार नहीं ग़म-ओ-ख़ुशी तो यहाँ आते जाते रहते हैं मगर ये ज़ीस्त का ऐ दोस्त ए'तिबार नहीं हर एक शय में उसी का जमाल है मौजूद दिल-ओ-नज़र को मिरी कोई इंतिशार नहीं इलाही बख़्श दे हर एक के गुनाहों को वो कौन है जो तिरे आगे शर्मसार नहीं 'नसीम' आ के परेशाँ है ऐसे सहरा में जहाँ न आब-ओ-गियाह गुल नहीं है ख़ार नहीं