गुमाँ की क़ैद-ए-हिसार-ए-क़यास से निकलो किसी तरह से भी इस सब्ज़ घास से निकलो ये शहर-ए-संग है शहर-ए-वफ़ा नहीं है ये अगर निकलना है होश-ओ-हवास से निकलो वगरना वक़्त तुम्हें हाशिए पे रख देगा यक़ीं के सेहर से आशोब-ए-आस से निकलो ये कैसा नश्शा है आख़िर जो टूटता ही नहीं कोई पुकार रहा है गिलास से निकलो कहाँ तलक मैं निगाहों को दूँ फ़रेब अपनी कभी तो गर्द-ए-अदम के लिबास से निकलो 'मुबारक' आग के दरिया से भी गुज़रना है दहकती धूप से सहरा की प्यास से निकलो